सोमवार, 7 सितंबर 2009

जरूरत ही क्या है

इस राह में कांटे इतने बिछे है, फूलों की जरूरत ही क्या है,
इस दिल में नश्तर इतने चुभें है, मरहम की जरुरत क्या ही है,
जब इक कली बेताब होती है, फूल बनने की राह पर चल देती है,
कितने कांटे कली की बिछे है राहों में, पूछने की जरुरत ही क्या है,
क्यूँ खामोश बैठा है आज ये नादान चचल भौंरा डाली पर,
खुद पर इतराती शोख कली को पूछने की जरुरत ही क्या है,
खामोश है दरिया, खामोश है पानी, ये अंबर, ये जमीं खामोश है,
खामोश है नज़ारें क्यों, किसी को पूछने की जरुरत ही क्या है,
गुजरता पल, आती निशा, डूबता सूरज, खामोश ये शमां क्यों है,
चाँद बुझा, चांदनी ढली क्यूँ , ये समझने की जरुरत ही क्या है,
मंद मंद हवा, ये गर्म दोपहर, क्यूँ तपता है ये सूरज,
क्यों जलता है ये परवाना, शमां को पूछने की जरुरत ही क्या है,
वो जोड़े हंसों के रागनियाँ गा रहे, जल क्रीडा करते हुए दूर जा रहे,
क्या वो बिछुड़ जायेंगे, विधाता से पूछने की जरुरत ही क्या है...

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