गुरुवार, 20 अक्तूबर 2016

चल आ, संग बैठ.....

चल आ, संग बैठ,
फिर खेले साथ मिल कर खेल वो बचपन के,
फिर से कोरे कागज़ पे उकेरे लकीरें टेढ़े मेढ़े,
फिर से अंजाम दे, अपने पाक वादों को मिल के,
तोड़े मरोड़े वो कागज़ की कश्ती को,
फिर बहायें मिल कर सावन की नाली में,
चल आ, संग बैठ,
फिर खेले साथ मिल कर खेल वो नवयौवन के,
महसूस करने छुवन को,
थोड़े सकुचाये, थोड़े शर्मायें से,
अँधेरे में छुप छुपा कर,
मिले अकेले डरते हुए बालकनी में,
तू चलना आगे, मैं चलूँ बन के साया तेरे पीछे,
कभी तुझे कभी तेरी परछाई बनने की  कोशिश मे,
चल आ संग बैठ,
फिर खेले साथ मिल कर खेल वो तेरे मेरे आँगन के,
कभी फूलों की पखुडियाँ, तो कभी उंगलियाँ, ईशारों में तोडना,
कभी बेमन तो कभी बेचन सा बनकर तुझसे उलझना,
कभी तुझमें सितारों को तो कभी सितारों में तुझे टटोलना,
कभी तेरी ओढ़नी से सितारें तोड़ कर तेरी बिंदी बनाना,
चल आ, संग बैठ,
फिर खेले साथ मिल कर खेल वो तेरे मेरे मन के.........    

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