शुक्रवार, 28 अक्तूबर 2016

तेरी नज़दीकियों से तो भली थी दूरियाँ,
वक्त बेवक्त तकती थी राहें मेरी मज़बूरियाँ,
इल्ज़ाम भी ऐसे थे बेगैरतों की तरह,
उबलते इश्क़ में कोई फेंक दे इंकार के बर्फ जैसे,
फुरसत के पलों में फिर से ढूंढते है पल चैन वाले,
ना हो मुनासिब तो भी बना देते लम्हा मेरा खुशनुमा सा,
सुन गैर सा ना बन विदेसिया तेरे माटी की खुशबु हूँ मैं,
मैं वक्त तेरा, एहसास तेरी, जरुरत से बढ़कर हूँ मैं,
तुझसे बढ़ी दूरियों में शामिल लम्हा ऐ इंतज़ार हूँ मैं,
वक्त बेवक्त तकती राहों में रखे हुए मील का पत्थर हूँ मैं...



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