शुक्रवार, 28 अक्तूबर 2016

तेरी नज़दीकियों से तो भली थी दूरियाँ,
वक्त बेवक्त तकती थी राहें मेरी मज़बूरियाँ,
इल्ज़ाम भी ऐसे थे बेगैरतों की तरह,
उबलते इश्क़ में कोई फेंक दे इंकार के बर्फ जैसे,
फुरसत के पलों में फिर से ढूंढते है पल चैन वाले,
ना हो मुनासिब तो भी बना देते लम्हा मेरा खुशनुमा सा,
सुन गैर सा ना बन विदेसिया तेरे माटी की खुशबु हूँ मैं,
मैं वक्त तेरा, एहसास तेरी, जरुरत से बढ़कर हूँ मैं,
तुझसे बढ़ी दूरियों में शामिल लम्हा ऐ इंतज़ार हूँ मैं,
वक्त बेवक्त तकती राहों में रखे हुए मील का पत्थर हूँ मैं...



गुरुवार, 20 अक्तूबर 2016

चल आ, संग बैठ.....

चल आ, संग बैठ,
फिर खेले साथ मिल कर खेल वो बचपन के,
फिर से कोरे कागज़ पे उकेरे लकीरें टेढ़े मेढ़े,
फिर से अंजाम दे, अपने पाक वादों को मिल के,
तोड़े मरोड़े वो कागज़ की कश्ती को,
फिर बहायें मिल कर सावन की नाली में,
चल आ, संग बैठ,
फिर खेले साथ मिल कर खेल वो नवयौवन के,
महसूस करने छुवन को,
थोड़े सकुचाये, थोड़े शर्मायें से,
अँधेरे में छुप छुपा कर,
मिले अकेले डरते हुए बालकनी में,
तू चलना आगे, मैं चलूँ बन के साया तेरे पीछे,
कभी तुझे कभी तेरी परछाई बनने की  कोशिश मे,
चल आ संग बैठ,
फिर खेले साथ मिल कर खेल वो तेरे मेरे आँगन के,
कभी फूलों की पखुडियाँ, तो कभी उंगलियाँ, ईशारों में तोडना,
कभी बेमन तो कभी बेचन सा बनकर तुझसे उलझना,
कभी तुझमें सितारों को तो कभी सितारों में तुझे टटोलना,
कभी तेरी ओढ़नी से सितारें तोड़ कर तेरी बिंदी बनाना,
चल आ, संग बैठ,
फिर खेले साथ मिल कर खेल वो तेरे मेरे मन के.........